दूसरा अध्याय
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥३१॥
अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये
युद्ध से बढकर ऐक क्षत्रीय के लिये कुछ नहीं है॥
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥३२॥
हे पार्थ, सुखी हैं वे क्षत्रिय जिन्हें ऐसा युद्ध मिलता है जो स्वयंम ही आया हो
और स्वर्ग का खुला दरवाजा हो॥
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥३३॥
लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश
की हानि करोगे और पाप प्राप्त करोगे॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते॥३४॥
तुम्हारे अन्तहीन अपयश की लोग बातें करेंगे। ऐसी अकीर्ती एक प्रतीष्ठित
मनुष्य के लिये मृत्यु से भी बढ कर है॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥३५॥
महारथी योद्धा तुम्हें युद्ध के भय से भागा समझेंगें।
जिनके मत में तुम ऊँचे हो, उन्हीं की नजरों में गिर जाओगे॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥३६॥
अहित की कामना से बहुत ना बोलने लायक वाक्यों से तुम्हारे
विपक्षी तुम्हारे सामर्थ्य की निन्दा करेंगें। इस से बढकर दुखदायी क्या होगा॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥३७॥
यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो
तो इस धरती को भोगोगे। इसलिये उठो, हे कौन्तेय, और निश्चय करके युद्ध करो॥
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥३८॥
सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को ऐक सा देखते हुऐ ही
युद्ध करो। ऍसा करते हुऐ तुम्हें पाप नहीं मिलेगा॥
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥३९॥
यह मैने तुम्हें साँख्य योग की दृष्टी से बताया। अब तुम कर्म योग की दृष्टी से सुनो।
इस बुद्धी को धारण करके तुम कर्म के बन्धन से छुटकारा पा लोगे॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥४०॥
न इसमें की गई मेहनत व्यर्थ जाती है और न ही इसमें कोई नुकसान होता है।
इस धर्म का जरा सा पालन करना भी महान डर से बचाता है॥
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥४१॥
इस धर्म का पालन करती बुद्धी ऐक ही जगह स्थिर रहती है।
लेकिन जिनकी बुद्धी इस धर्म में नहीं है वह अन्तहीन दिशाओं में बिखरी रहती है॥
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥४२॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥४३॥
हे पार्थ, जो घुमाई हुईं फूलों जैसीं बातें करते है, वेदों का भाषण करते हैं और
जिनके लिये उससे बढकर और कुछ नहीं है, जिनकी
आत्मा इच्छायों से जकड़ी हुई है और स्वर्ग जिनका मकस्द है वह ऍसे
कर्म करते हैं जिनका फल दूसरा जनम है। तरह तरह के कर्मों में फसे हुऐ और
भोग ऍश्वर्य की इच्छा करते हऐ वे ऍसे लोग ही ऐसे भाषणों की तरफ खिचते हैं॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥४४॥
भोग ऍश्वर्य से जुड़े जिनकी बुद्धी हरी जा चुकी है, ऍसी बुद्धी कर्म योग
मे स्थिरता ग्रहण नहीं करती॥
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥४५॥
वेदों में तीन गुणो का व्यखान है। तुम इन तीनो गुणों का त्याग करो, हे अर्जुन।
द्वन्द्वता और भेदों से मुक्त हो। सत में खुद को स्थिर करो। लाभ और रक्षा की चिंता छोड़ो
और खुद में स्थित हो॥