दूसरा अध्याय
यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥४६॥
हर जगह पानी होने पर जितना सा काम ऐक कूँऐ का होता है,
उतना ही काम ज्ञानमंद को सभी वेदों से है॥मतलब यह की उस बुद्धिमान पुरुष के लिये
जो सत्य को जान चुका है, वेदों में बताये भोग प्राप्ती के कर्मों से कोई मतलब नहीं है॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥४७॥
कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं।
कर्म को फल के लिये मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो॥
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥४८॥
योग में स्थित रह कर कर्म करो, हे धनंजय, उससे बिना जुड़े हुऐ।
काम सफल हो न हो, दोनो में ऐक से रहो। इसी समता को योग कहते हैं॥
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥४९॥
इस बुद्धी योग के द्वारा किया काम तो बहुत ऊँचा है। इस बुद्धि की शरण
लो। काम को फल कि इच्छा से करने वाले तो कंजूस होते हैं॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्॥५०॥
इस बुद्धि से युक्त होकर तुम अच्छे और बुरे कर्म दोनो से छुटकारा पा लोगे।
इसलिये योग को धारण करो। यह योग ही काम करने में असली कुशलता है॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्॥५१॥
इस बुद्धि से युक्त होकर मुनि लोग किये हुऐ काम के नतीजों को त्याग देते हैं।
इस प्रकार जन्म बन्धन से मुक्त होकर वे दुख से परे स्थान प्राप्त करते हैं॥
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥५२॥
जब तुम्हारी बुद्धि अन्धकार से ऊपर उठ जाऐगी तब क्या सुन चुके हो और क्या सुनने वाला है
उसमे तुमहें कोई मतलब नहीं रहेगा॥
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥५३॥
ऐक दूसरे को काटते उपदेश और श्रुतियां सुन सुन कर जब तुम अडिग स्थिर रहोगे,
तब तुम्हारी बुद्धी स्थिर हो जायेगी और तुम योग को प्राप्त कर लोगे॥
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥५४॥
हे केशव, जिसकी बुद्धि ज्ञान में स्थिर हो चुकि है, वह कैसा होता है।
ऍसा स्थिरता प्राप्त किया व्यक्ती कैसे बोलता, बैठता, चलता, फिरता है॥
श्रीभगवानुवाचे
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥५५॥
हे पार्थ, जब वह अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को निकाल देता है,
और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, तब उसे ज्ञान और बुद्धिमता में
स्थित कहा जाता है॥
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥५६॥
जब वह दुखः से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे
नहीं उठतीं, इच्छा और तड़प, डर और गुस्से से मुक्त, ऐसे स्थित हुऐ धीर मनुष्य
को ही मुनि कहा जाता है॥
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५७॥
किसी भी ओर न जुड़ा रह, अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी
कामना करता है और न उससे नफरत करता है उसकी बुद्धि ज्ञान में स्थित है॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥५८॥
जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है,
वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रीयाँ को उनके विषयों से
निकाल कर खुद में समेट रखा है, वह ज्ञान में स्थित है॥
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥५९॥
विषयों का त्याग के देने पर उनका स्वाद ही बचता है।
परम् को देख लेने पर वह स्वाद भी मन से छूट जाता है॥
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥६०॥
हे कौन्तेय, सावधानी से संयमता का अभयास करते हुऐ पुरुष के
मन को भी उसकी चंचल इन्द्रीयाँ बलपूर्वक छीन लिती हैं॥