Bhagwad Gita  
 
 


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Home > Srimadh Bhagwad Gita > 2nd Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
दूसरा अध्याय
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥१६॥

न असत कभी रहता है और सत न रहे ऐसा हो नहीं सकता।
इन होनो की ही असलीयत वह देख चुके हैं जो सार को देखते हैं॥

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥१७॥

तुम यह जानो कि उसका नाश नहीं किया जा सकता जिसमे यह सब कुछ स्थित है।
क्योंकि जो अमर है उसका नाश करना किसी के बस में नहीं॥

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥१८॥

यह देह तो मरणशील है, लेकिन शरीर में बैठने वाला अन्तहीन कहा जाता है।
इस आत्मा का न तो अन्त है और न ही इसका कोई मेल है, इसलिऐ युद्ध करो हे भारत॥

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥

जो इसे मारने वाला जानता है या फिर जो इसे मरा मानता है,
वह दोनों ही नहीं जानते। यह न मारती है और न मरती है॥

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥२०॥

यह न कभी पैदा होती है और न कभी मरती है। यह तो अजन्मी,
अन्तहीन, शाश्वत और अमर है। सदा से है, कब से है। शरीर के मरने
पर भी इसका अन्त नहीं होता॥

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥२१॥

हे पार्थ, जो पुरुष इसे अविनाशी, अमर और जन्महीन, विकारहीन जानता है,
वह किसी को कैसे मार सकता है यां खुद भी कैसे मर सकता है॥

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२२॥

जैसे कोई व्यक्ती पुराने कपड़े उतार कर नऐ कपड़े पहनता है,
वैसे ही शरीर धारण की हुई आत्मा पुराना शरीर त्याग कर
नया शरीर प्राप्त करती है॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥२३॥

न शस्त्र इसे काट सकते हैं और न ही आग इसे जला सकती है।
न पानी इसे भिगो सकता है और न ही हवा इसे सुखा सकती है॥

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२४॥

यह अछेद्य है, जलाई नहीं जा सकती, भिगोई नहीं जा सकती, सुखाई नहीं जा सकती।
यह हमेशा रहने वाली है, हर जगह है, स्थिर है, अन्तहीन है॥

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥२५॥

यह दिखती नहीं है, न इसे समझा जा सकता है। यह बदलाव से
रहित है, ऐसा कहा जाता है। इसलिये इसे ऐसा जान कर तुम्हें शोक
नहीं करना चाहिऐ॥

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥२६॥

हे महाबाहो, अगर तुम इसे बार बार जन्म लेती और बार बार मरती भी मानो,
तब भी, तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ॥

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥२७॥

क्योंकि जिसने जन्म लिया है, उसका मरना निष्चित है। मरने वाले का जन्म भी तय है।
जिसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता उसके बारे तुम्हें शोक नहीं करना चाहिऐ॥

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥२८॥


हे भारत, जीव शुरू में अव्यक्त, मध्य में व्यक्त और मृत्यु के बाद फिर
अव्यक्त हो जाते हैं। इस में दुखी होने की क्या बात है॥

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥२९॥

कोई इसे आश्चर्य से देखता है, कोई इसके बारे में आश्चर्य से बताता है,
और कोई इसके बारे में आश्चर्यचित होकर सुनता है, लेकिन सुनने के बाद भी
कोई इसे नहीं जानता॥

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥३०॥


हे भारत, हर देह में जो आत्मा है वह नित्य है, उसका वध नहीं किया जा सकता।
इसलिये किसी भी जीव के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये॥
   
 
 
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