Bhagwad Gita  
 
 


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Home > Srimadh Bhagwad Gita > 4th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
चौथा अध्याय
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥३१॥

यज्ञ से उत्पन्न इस अमृत का जो पान करते हैं अर्थात जो यज्ञ कर
पापों को क्षीण कर उससे उत्पन्न शान्ति को प्राप्त करते हैं, वे सनातन
ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। जो यज्ञ नहीं करता, उसके लिये यह लोक ही
सुखमयी नहीं है, तो और कोई लोक भी कैसे हो सकता है, हे कुरुसत्तम॥

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥३२॥

इस प्रकार ब्रह्म से बहुत से यज्ञों का विधान हुआ। इन सभी
को तुम कर्म से उत्पन्न हुआ जानो और ऍसा जान जाने पर
तुम भी कर्म से मोक्ष पा जाओगे॥

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥३३॥

हे परन्तप, धन आदि पदार्थों के यज्ञ से ज्ञान यज्ञ ज्यादा अच्छा है।
सारे कर्म पूर्ण रूप से ज्ञान मिल जाने पर अन्त पाते हैं॥

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥३४॥

सार को जानने वाले ज्ञानमंदों को तुम प्रणाम करो, उनसे प्रशन
करो और उनकी सेवा करो॥वे तुम्हे ज्ञान मे उपदेश देंगे॥

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥३५॥

हे पाण्डव, उस ज्ञान में, जिसे जान लेने पर तुम फिर से मोहित
नहीं होगे, और अशेष सभी जीवों को तुम अपने में अन्यथा मुझ मे
देखोगे॥

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥३६॥

यदि तुम सभी पाप करने वालों से भी अधिक पापी हो, तब भी
ज्ञान रूपी नाव द्वारा तुम उन सब पापों को पार कर जाओगे॥

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥३७॥


जैसे समृद्ध अग्नि भस्म कर डालती है, हे अर्जुन, उसी प्रकार
ज्ञान अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर डालती है॥

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥३८॥

ज्ञान से अधिक पवित्र इस संसार पर और कुछ नहीं है। तुम
सवयंम ही, योग में सिद्ध हो जाने पर, समय के साथ अपनी आत्मा
में ज्ञान को प्राप्त करोगे॥

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥३९॥


श्रद्धा रखने वाले, अपनी इन्द्रियों का संयम कर ज्ञान लभते हैं।
और ज्ञान मिल जाने पर, जलद ही परम शान्ति को प्राप्त होते हैं॥

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥४०॥

ज्ञानहीन और श्रद्धाहीन, शंकाओं मे डूबी आत्मा वालों का विनाश हो जाता है।
न उनके लिये ये लोक है, न कोई और न ही शंका में डूबी आत्मा को कोई
सुख है॥

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय॥४१॥

योग द्वारा कर्मों का त्याग किये हुआ, ज्ञान द्वारा शंकाओं को छिन्न भिन्न किया हुआ,
आत्म मे स्थित व्यक्ति को कर्म नहीं बाँधते, हे धनंजय॥

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥४२॥

इसलिये अज्ञान से जन्मे इस संशय को जो तुम्हारे हृदय मे
घर किया हुआ है, ज्ञान रूपी तल्वार से चीर डालो, और योग को धारण
कर उठो हे भारत॥
   
 
 
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