Bhagwad Gita  
 
 


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Home > Srimadh Bhagwad Gita >4th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
चौथा अध्याय
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥१६॥

कर्म कया है और अकर्म कया है, विद्वान भी इस के बारे में
मोहित हैं। तुम्हे मैं कर्म कया है, ये बताता हूँ जिसे जानकर
तुम अशुभ से मुक्ति पा लोगे॥

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥१७॥

कर्म को जानना जरूरी है और न करने लायक कर्म को भी।
अकर्म को भी जानना जरूरी है, क्योंकि कर्म रहस्यमयी है॥

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥१८॥

कर्म करने मे जो अकर्म देखता है, और कर्म न करने मे भी
जो कर्म होता देखता है, वही मनुष्य बुद्धिमान है और इसी
बुद्धि से युक्त होकर वो अपने सभी कर्म करता है॥

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥१९॥

जिसके द्वारा आरम्भ किया सब कुछ इच्छा संकल्प से
मुक्त होता है, जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि में जल
कर राख हो गये हैं, उसे ज्ञानमंद लोग बुद्धिमान कहते हैं॥

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥२०॥

कर्म के फल से लगाव त्याग कर, सदा तृप्त और आश्रयहीन रहने वाला,
कर्म मे लगा हुआ होकर भी, कभी कुछ नहीं करता है॥

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥२१॥


मोघ आशाओं से मुक्त, अपने चित और आत्मा को वश में कर, घर सम्पत्ति आदि मिनसिक परिग्रहों को त्याग, जो केवल शरीर से कर्म करता है, वो कर्म करते हुऐ भी पाप नहीं प्राप्त करता॥

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥२२॥


सवयंम ही चल कर आये लाभ से ही सन्तुष्ट, द्विन्द्वता से ऊपर उठा हुआ, और दिमागी जलन से मुक्त, जो सफलता असफलता मे एक सा है, वो कार्य करता हुआ भी नहीं बँधता॥

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥२३॥


संग छोड़ जो मुक्त हो चुका है, जिसका चित ज्ञान में स्थित है, जो केवल यज्ञ के लिये कर्म कर रहा है, उसके संपूर्ण कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं॥

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥२४॥

ब्रह्म ही अर्पण करने का साधन है, ब्रह्म ही जो अर्पण हो रहा है वो है, ब्रह्म ही वो अग्नि है जिसमे अर्पण किया जा रहा है, और अर्पण करने वाला भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार कर्म करते समय जो ब्रह्म मे समाधित हैं, वे ब्रह्म को ही प्राप्त करते हैं॥

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥२५॥


कुछ योगी यज्ञ के द्वारा देवों की पूजा करते हैं।
और कुछ ब्रह्म की ही अग्नि मे यज्ञ कि आहुति देते हैं॥

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥२६॥

अन्य सुनने आदि इन्द्रियों की संयम अग्नि मे आहुति देते हैं।
और अन्य शब्दादि विषयों कि इन्द्रियों रूपी अग्नि मे आहूति देते हैं॥

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥२७॥

और दूसरे कोई, सभी इन्द्रियों और प्राणों को कर्म मे लगा कर,
आत्म संयम द्वारा, ज्ञान से जल रही, योग अग्नि मे अर्पित करते हैं

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥२८॥

इस प्रकार कोई धन पदार्थों द्वारा यज्ञ करते हैं, कोई तप द्वारा यज्ञ करते हैं,
कोई कर्म योग द्वारा यज्ञ करते हैं और कोई स्वाध्याय द्वारा ज्ञान यज्ञ करते हैं,
अपने अपने व्रतों का सावधानि से पालन करते हुऐ॥

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥२९॥

और भी कई, अपान में प्राण को अर्पित कर और प्राण मे अपान को अर्पित कर,
इस प्रकार प्राण और अपान कि गतियों को नियमित कर, प्राणायाम मे लगते हैँ॥

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥३०॥

अन्य कुछ, अहार न ले कर, प्राणों को प्राणों मे अर्पित करते हैं।
ये सभी ही, यज्ञों द्वारा क्षीण पाप हुऐ, यज्ञ को जानने वाले हैं॥
   
 
 
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