दसवाँ अध्याय
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥१६॥
आप जिन जिन विभूतियों से इस संसार में व्याप्त होकर विराजमान हैं, मुझे पुरी तरहं (अशेष) अपनी उन
दिव्य आत्म विभूतियों का वर्णन कीजिय (आप ही करने में समर्थ हैं)।
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥१७॥
हे योगी, मैं सदा आप का परिचिन्तन करता (आप के बारे में सोचता) हुआ किस प्रकार आप को जानूं (अर्थात किस
प्रकार मैं आप का चिन्तन करूँ)। हे भगवन, मैं आपके किन किन भावों में आपका चिन्तन करूँ।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥१८॥
हे जनार्दन, आप आपनी योग विभूतियों के विस्तार को फिर से मुझे बताइये, क्योंकि आपके वचनों रुपी
इस अमृत का पान करते (सुनते) अभी मैं तृप्त नहीं हुआ हूँ।
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥१९॥
मैं तुम्हें अपनी प्रधान प्रधान दिव्य आत्म विभूतियों के बारे में बताता हूँ क्योंकि हे कुरु श्रेष्ठ मेरे
विसतार का कोई अन्त नहीं है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥२०॥
मैं आत्मा हूँ, हे गुडाकेश, सभी जीवों के अन्तकरण में स्थित। मैं ही सभी जीवों का आदि (जन्म), मध्य और
अन्त भी हूँ।
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥२१॥
आदित्यों (अदिति के पुत्रों) में मैं विष्णु हूँ। और ज्योतियों में किरणों युक्त सूर्य हूँ। मरुतों (49 मरुत नाम के देवताओं) में से मैं
मरीचि हूँ। और नक्षत्रों में शशि (चन्द्र)।
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥२२॥
वेदों में मैं साम वेद हूँ। देवताओं में इन्द्र। इन्द्रियों में मैं मन हूँ। और जीवों में चेतना।
रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्॥२३॥
रुद्रों में मैं शंकर (शिव जी) हूँ, और यक्ष एवं राक्षसों में कुबेर हूँ। वसुयों में मैं अग्नि (पावक) हूँ।
और शिखर वाले पर्वतों में मैं मेरु हूँ।
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥२४॥
हे पार्थ तुम मुझे पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति जानो। सेना पतियों में मुझे स्कन्ध जानो और जलाशयों में
सागर।
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥२५॥
महर्षीयों में मैं भृगु हूँ, शब्दों में मैं एक ही अक्षर ॐ हूँ। यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ और न हिलने वालों मेंहिमालय।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥२६॥
सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ, और देव ऋर्षियों में नारद। गन्धर्वों में मैं चित्ररथ हूँ और सिद्धों में
भगवान कपिल मुनि।
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥२७॥
सभी घोड़ों में से मुझे तुम अमृत के लिये किये सागर मंथन से उत्पन्न उच्चैश्रव समझो। हाथीयों का
राजा ऐरावत समझो। और मनुष्यों में मनुष्यों का राजा समझो।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥२८॥
शस्त्रों में मैं वज्र हूँ। गायों में कामधुक। प्रजा की बढौति करने वालों में
कन्दर्प (काम देव) और सर्पों में मैं वासुकि हूँ।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥२९॥
नागों में मैं अनन्त (शेष नाग) हूँ और जल के देवताओं में वरुण। पितरों में अर्यामा हूँ और नियंत्रित करने
वालों में यम देव।
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥३०॥
दैत्यों में मैं भक्त प्रह्लाद हूँ। परिवर्तन शीलों में मैं समय हूँ। हिरणों में मैं उनका इन्द्र अर्थात शेर हूँ और
पक्षियों में वैनतेय (गरुड)।