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अयोध्याकांड
चौपाई
नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई॥
अरि बस दैउ जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही॥1॥
भावार्थ:-मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूँगी, पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूँगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता है, उसके लिए तो जीने की अपेक्षा मरना ही अच्छा है॥1॥ दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी॥
अस कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुँ दिन दूना॥2॥
भावार्थ:-रानी ने बहुत प्रकार के दीन वचन कहे। उन्हें सुनकर कुबरी ने त्रिया चरित्र फैलाया। (वह बोली-) तुम मन में ग्लानि मानकर ऐसा क्यों कह रही हो, तुम्हारा सुख-सुहाग दिन-दिन दूना होगा॥2॥
जेहिं राउर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका॥
जब तें कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि॥3॥
भावार्थ:-जिसने तुम्हारी बुराई चाही है, वही परिणाम में यह (बुराई रूप) फल पाएगी। हे स्वामिनि! मैंने जब से यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो दिन में कुछ भूख लगती है और न रात में नींद ही आती है॥3॥
पूँछेउँ गुनिन्ह रेख तिन्ह खाँची। भरत भुआल होहिं यह साँची॥
भामिनि करहु त कहौं उपाऊ। है तुम्हरीं सेवा बस राऊ॥4॥
भावार्थ:-मैंने ज्योतिषियों से पूछा, तो उन्होंने रेखा खींचकर (गणित करके अथवा निश्चयपूर्वक) कहा कि भरत राजा होंगे, यह सत्य बात है। हे भामिनि! तुम करो तो उपाय मैं बताऊँ। राजा तुम्हारी सेवा के वश में हैं ही॥4॥
दोहा
परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि॥21॥
भावार्थ:-(कैकेयी ने कहा-) मैं तेरे कहने से कुएँ में गिर सकती हूँ, पुत्र और पति को भी छोड़ सकती हूँ। जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो भला मैं अपने हित के लिए उसे क्यों न करूँगी॥21॥
चौपाई
कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥
लखइ ना रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें॥1॥
भावार्थ:-कुबरी ने कैकेयी को (सब तरह से) कबूल करवाकर (अर्थात बलि पशु बनाकर) कपट रूप छुरी को अपने (कठोर) हृदय रूपी पत्थर पर टेया (उसकी धार को तेज किया)। रानी कैकेयी अपने निकट के (शीघ्र आने वाले) दुःख को कैसे नहीं देखती, जैसे बलि का पशु हरी-हरी घास चरता है। (पर यह नहीं जानता कि मौत सिर पर नाच रही है।)॥1॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देति मनहुँ मधु माहुर घोरी॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं। स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं॥2॥
भावार्थ:-मन्थरा की बातें सुनने में तो कोमल हैं, पर परिणाम में कठोर (भयानक) हैं। मानो वह शहद में घोलकर जहर पिला रही हो। दासी कहती है- हे स्वामिनि! तुमने मुझको एक कथा कही थी, उसकी याद है कि नहीं?॥2॥
दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती॥
सुतहि राजु रामहि बनबासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू॥3॥
भावार्थ:-तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं। आज उन्हें राजा से माँगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनंद तुम ले लो॥3॥
भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें॥4॥
भावार्थ:-जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर माँगना, जिससे वचन न टलने पावे। आज की रात बीत गई, तो काम बिगड़ जाएगा। मेरी बात को हृदय से प्रिय (या प्राणों से भी प्यारी) समझना॥4॥
दोहा
बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु॥22॥॥
भावार्थ:-पापिनी मन्थरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा- कोपभवन में जाओ। सब काम बड़ी सावधानी से बनाना, राजा पर सहसा विश्वास न कर लेना (उनकी बातों में न आ जाना)॥22॥
चौपाई
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी। बार बार बुद्धि बखानी॥
तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कई भइसि अधारा॥1॥
भावार्थ:-कुबरी को रानी ने प्राणों के समान प्रिय समझकर बार-बार उसकी बड़ी बुद्धि का बखान किया और बोली- संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है। तू मुझे बही जाती हुई के लिए सहारा हुई है॥1॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली। करौं तोहि चख पूतरि आली॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनी कैकेई॥2॥
भावार्थ:-यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी! मैं तुझे आँखों की पुतली बना लूँ। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गई॥।2॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति कैकई केरी॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा॥3॥
भावार्थ:-विपत्ति (कलह) बीज है, दासी वर्षा ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि (उस बीज के बोने के लिए) जमीन हो गई। उसमें कपट रूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान उस अंकुर के दो पत्ते हैं और अंत में इसके दुःख रूपी फल होगा॥3॥
कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई॥4॥
भावार्थ:-कैकेयी कोप का सब साज सजकर (कोपभवन में) जा सोई। राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गई। राजमहल और नगर में धूम-धाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता॥4॥
दोहा
प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार॥23।
भावार्थ:-बड़े ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साथ सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है, कोई बाहर निकलता है, राजद्वार में बड़ी भीड़ हो रही है॥23॥
चौपाई
बाल सखा सुनि हियँ हरषाहीं। मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी। पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस-पाँच मिलकर श्री रामचन्द्रजी के पास जाते हैं। प्रेम पहचानकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल क्षेम पूछते हैं॥1॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥
को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेहु निबाहनिहारा॥2॥
भावार्थ:-अपने प्रिय सखा श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक-दूसरे से श्री रामचन्द्रजी की बड़ाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं- संसार में श्री रघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहने वाला कौन है?॥2॥
जेहिं-जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू॥3॥
भावार्थ:-भगवान हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस-जिस योनि में जन्में, वहाँ-वहाँ (उस-उस योनि में) हम तो सेवक हों और सीतापति श्री रामचन्द्रजी हमारे स्वामी हों और यह नाता अन्त तक निभ जाए॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता हृदयँ अति दाहू॥
को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई॥4॥
भावार्थ:-नगर में सबकी ऐसी ही अभिलाषा है, परन्तु कैकेयी के हृदय में बड़ी जलन हो रही है। कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती॥4॥
दोहा
साँझ समय सानंद नृपु गयउ कैकई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ॥24॥
भावार्थ:-संध्या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल में गए। मानो साक्षात स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरता के पास गया हो!॥24॥
चौपाई
कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाकें। नरपति सकल रहहिं रुख ताकें॥1॥
भावार्थ:-कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल पर (राक्षसों से निर्भय होकर) बसता है और सम्पूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं॥1॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे॥2॥
भावार्थ:-वही राजा दशरथ स्त्री का क्रोध सुनकर सूख गए। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिए। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि की चोट अपने अंगों पर सहने वाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव के पुष्पबाण से मारे गए॥2॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना॥3॥
भावार्थ:-राजा डरते-डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गए। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ। कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है।
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवातु सूच जनु भाबी॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी॥4॥
भावार्थ:-उस दुर्बुद्धि कैकेयी को यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापन की सूचना दे रही हो। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले- हे प्राणप्रिये! किसलिए रिसाई (रूठी) हो?॥4॥
छन्द
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई॥
भावार्थ:-'हे रानी! किसलिए रूठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से स्पर्श करते हैं, तो वह उनके हाथ को (झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों (वरदानों की) वासनाएँ उस नागिन की दो जीभें हैं और दोनों वरदान दाँत हैं, वह काटने के लिए मर्मस्थान देख रही है। तुलसीदासजी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे (इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भाँति देखने को) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।
सोरठा
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर॥25॥
भावार्थ:-राजा बार-बार कह रहे हैं- हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोकिलबयनी! हे गजगामिनी! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना॥25॥
चौपाई
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा। केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा॥
कहु केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू॥1॥
भावार्थ:-हे प्रिये! किसने तेरा अनिष्ट किया? किसके दो सिर हैं? यमराज किसको लेना (अपने लोक को ले जाना) चाहते हैं? कह, किस कंगाल को राजा कर दूँ या किस राजा को देश से निकाल दूँ?॥1॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी। काह कीट बपुरे नर नारी॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू। मनु तव आनन चंद चकोरू॥2॥
भावार्थ:-तेरा शत्रु अमर (देवता) भी हो, तो मैं उसे भी मार सकता हूँ। बेचारे कीड़े-मकोड़े सरीखे नर-नारी तो चीज ही क्या हैं। हे सुंदरी! तू तो मेरा स्वभाव जानती ही है कि मेरा मन सदा तेरे मुख रूपी चन्द्रमा का चकोर है॥2॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें॥
जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही॥3॥
भावार्थ:-हे प्रिये! मेरी प्रजा, कुटम्बी, सर्वस्व (सम्पत्ति), पुत्र, यहाँ तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश में (अधीन) हैं। यदि मैं तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे भामिनी! मुझे सौ बार राम की सौगंध है॥3॥
बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता॥।
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू। बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू॥4॥
भावार्थ:-तू हँसकर (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंगों को आभूषणों से सजा। मौका-बेमौका तो मन में विचार कर देख। हे प्रिये! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे॥4॥
दोहा
यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकिमृगु मनहुँ किरातिनि फंद॥26॥
भावार्थ:-यह सुनकर और मन में रामजी की बड़ी सौंगंध को विचारकर मंदबुद्धि कैकेयी हँसती हुई उठी और गहने पहनने लगी, मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फंदा तैयार कर रही हो!॥26॥
चौपाई
पुनि कह राउ सुहृद जियँ जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥1॥
भावार्थ:-अपने जी में कैकेयी को सुहृद् जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुंदर वाणी से फिर बोले- हे भामिनि! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर-घर आनंद के बधावे बज रहे हैं॥1॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू॥
दलकि उठेउ सुनि हृदउ कठोरू। जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू॥2॥
भावार्थ:-मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूँ, इसलिए हे सुनयनी! तू मंगल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हुआ बालतोड़ (फोड़ा) छू गया हो॥2॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई॥3॥
भावार्थ:-ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हँसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती (जिसमें उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसकी कपट-चतुराई को नहीं लख रहे हैं, क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है॥3॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू॥
कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी॥4॥
भावार्थ:-यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं, परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटयुक्त प्रेम बढ़ाकर (ऊपर से प्रेम दिखाकर) नेत्र और मुँह मोड़कर हँसती हुई बोली-॥4॥
दोहा
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु॥27॥
भावार्थ:-हे प्रियतम! आप माँग-माँग तो कहा करते हैं, पर देते-लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है॥27॥
चौपाई
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई॥
थाती राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ॥1॥
भावार्थ:-राजा ने हँसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म (मतलब) समझा। मान करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती (धरोहर) रखकर फिर कभी माँगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसंग याद नहीं रहा॥1॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई॥2॥
भावार्थ:-मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥2॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए॥3॥
भावार्थ:-असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुँघचियाँ मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। 'सत्य' ही समस्त उत्तम सुकृतों (पुण्यों) की जड़ है। यह बात वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और मनुजी ने भी यही कहा है॥3॥
तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई॥
बाद दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली॥4॥
भावार्थ:-उस पर मेरे द्वारा श्री रामजी की शपथ करने में आ गई (मुँह से निकल पड़ी)। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत (पुण्य) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने कुमत (बुरे विचार) रूपी दुष्ट पक्षी (बाज) (को छोड़ने के लिए उस) की कुलही (आँखों पर की टोपी) खोल दी॥4॥
दोहा
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु॥28॥
भावार्थ:-राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पक्षियों का समुदाय है। उस पर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥28॥

मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम
चौपाई
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥1॥
भावार्थ:-(वह बोली-) हे प्राण प्यारे! सुनिए, मेरे मन को भाने वाला एक वर तो दीजिए, भरत को राजतिलक और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिए-॥1॥
तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥2॥
भावार्थ:-तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है॥2॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥3॥
भावार्थ:-राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना मानो बाज वन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को बिजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर बिजली गिरने से वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजा का हुआ)॥3॥
माथें हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला। फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥4॥
भावार्थ:-माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात्‌ सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते हैं- हाय!) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला॥4॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं। दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं॥5॥
भावार्थ:-कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी॥5॥
दोहा
कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास॥29॥
भावार्थ:-किस अवसर पर क्या हो गया! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धि रूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है॥29॥
चौपाई
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा। देखि कुभाँति कुमति मन माखा॥
भरतु कि राउर पूत न होंही। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार राजा मन ही मन झींख रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। (और बोली-) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाए हैं? (क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूँ?)॥1॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचनु सँभारें॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं॥2॥
भावार्थ:-जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण सा लगा तो आप सोच-समझकर बात क्यों नहीं कहते? उत्तर दीजिए- हाँ कीजिए, नहीं तो नाहीं कर दीजिए। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा वाले (प्रसिद्ध) हैं!॥2॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू। तजहु सत्य जग अपजसु लेहू॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना॥3॥
भावार्थ:-आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिए। सत्य को छोड़ दीजिए और जगत में अपयश लीजिए। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही माँग लेगी!॥3॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहुँ लोन जरे पर देई॥4॥
भावार्थ:-राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कड़ुवे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो॥4॥
दोहा
धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ॥30॥
भावार्थ:-धर्म की धुरी को धारण करने वाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लंबी साँस लेकर इस प्रकार कहा कि इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया)॥30॥
   
 
 
होम | अबाउट अस | आरती संग्रह | चालीसा संग्रह | व्रत व त्यौहार | रामचरित मानस | श्रीमद्भगवद्गीता | वेद | व्रतकथा | विशेष