Bhagwad Gita  
 
 


   Share  family



   Print   



 
Home > Srimadh Bhagwad Gita > 3rd Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
तीसरा अध्याय
यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३१॥


मेरे इस मत को, जो मानव श्रद्धा और बिना दोष निकाले
सदा धारण करता है और मानता है, वह कर्मों से मु्क्ती प्राप्त
करता है॥

यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३२॥


जो इसमें दोष निकाल कर मेरे इस मत का पालन नहीं करता,
उसे तुम सारे ज्ञान से वंचित, मूर्ख हुआ और नष्ट बुद्धी जानो॥

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३३॥

सब वैसा ही करते है जैसी उनका स्वभाव होता है, चाहे वह ज्ञानवान भी हों।
अपने स्वभाव से ही सभी प्राणी होते हैं फिर सयंम से क्या होगा॥

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३४॥

इन्द्रियों के लिये उन के विषयों में खींच और घृणा होती है। इन दोनो के
वश में मत आओ क्योंकि यह रस्ते के रुकावट हैं॥

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३५॥

अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमे कमियाँ भी हों, किसी और के अच्छी तरह किये काम से।
अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमे डर न हो॥

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३६॥


लेकिन, हे वार्ष्णेय, किसके जोर में दबकर पुरुष पाप करता है, अपनी मरजी के बिना भी, जैसे
कि बल से उससे पाप करवाया जा रहा हो॥

श्रीभगवानुवाचे
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३७॥

इच्छा और गुस्सा जो रजो गुण से होते हैं, महा विनाशी, महापापी
इसे तुम यहाँ दुश्मन जानो॥

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३८॥

जैसे आग को धूआँ ढक लेता है, शीशे को मिट्टी ढक लेती है,
शिशू को गर्भ ढका लेता है, उसी तरह वह इनसे ढका रहता है॥

(क्या ढका रहता है, अगले श्लोक में है )

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३९॥

यह ज्ञान को ढकने वाला ज्ञानमंद पुरुष का सदा वैरी है,
इच्छा का रूप लिऐ, हे कौन्तेय, जिसे पूरा करना संभव नहीं॥

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥४०॥

इन्द्रीयाँ मन और बुद्धि इसके स्थान कहे जाते हैं। यह देहधिरियों को
मूर्ख बना उनके ज्ञान को ढक लेती है॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥४१॥

इसलिये, हे भरतर्षभ, सबसे पहले तुम अपनी इन्द्रीयों को नियमित करो और
इस पापमयी, ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाली इच्छा का त्याग करो॥

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥४२॥

इन्द्रीयों को उत्तम कहा जाता है, और इन्द्रीयों से उत्तम मन है,
मन से ऊपर बुद्धि है और बुद्धि से ऊपर आत्मा है॥

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥४३॥

इस प्रकार स्वयंम को बुद्धि से ऊपर जान कर, स्वयंम को स्वयंम के वश
में कर, हे महाबाहो, इस इच्छा रूपी शत्रु, पर जीत प्राप्त कर लो, जिसे जीतना
कठिन है॥
   
 
 
होम | अबाउट अस | आरती संग्रह | चालीसा संग्रह | व्रत व त्यौहार | रामचरित मानस | श्रीमद्भगवद्गीता | वेद | व्रतकथा | विशेष