Bhagwad Gita  
 
 


   Share  family



   Print   



 
Home > Srimadh Bhagwad Gita > 18th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
अठारहँवा अध्याय
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥१६॥


जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि द्वारा केवल अपने आत्म को ही कर्ता देखता है (कर्म करने का एक मात्र कारण), वह दुर्मति सत्य नहीं देखता।

यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१७॥


जिस में यह भाव नहीं है की 'मैंने किया है' और जिस की बुद्धि लिपि नहीं है (शुद्ध है), वह इस संसार में (किसी जीव को) मार कर भी नहीं मारता और न ही (कर्म फल में) बँधता है।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥१८॥


ज्ञान, ज्ञेय (जाने जाने योग्य) औऱ परिज्ञाता - ये कर्म में प्रेरित करते हैं, और करण, कर्म और कर्ता - यह कर्म के संग्रह (निवास स्थान) हैं।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥१९॥

ज्ञान (कोई जानकारी), कर्म और कर्ता भी साँख्य सिद्धांत में गुणों के अनुसार तीन प्रकार के बताये गये हैं। उन का भी तुम मुझसे यथावत श्रवण करो।

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्॥२०॥

जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों में एक ही अव्यय भाव (परमेश्वर) को देखता है, एक ही अविभक्त (जो बाँटा हुआ नहीं है) को विभिन्न विभिन्न रूपों में देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्विक जानो।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्॥२१॥

जिस ज्ञान द्वारा मनुष्य सभी जीवों को अलग अलग विभिन्न प्रकार का देखता है, उस ज्ञान दृष्टि को तुम राजसिक जानो।

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्॥२२॥

और जिस ज्ञान से मनुष्य एक ही व्यर्थ कार्य से जुड जाता है मानो वही सब कुछ हो, वह तत्वहीन, अल्प (छोटे) ज्ञान को तुम तामसिक जानो।

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥२३॥


जो कर्म नियत है (कर्तव्य है), उसे संग रहित और बिना राग द्वेष के किया गया है, जिसे फल की इच्छा नहीं रख कर किया गया है, उस कर्म को सात्विक कहा जाता है।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥२४॥


जो कर्म बहुत परिश्रम से फल की कामना करते हुये किया गया है, अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया गया है, वह कर्म राजसिक है।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥२५॥

जो कर्म सामर्थय का, परिणाम का, हानि और हिंसा का ध्यान न करते हुये मोह द्वारा आरम्भ किया गया है, जो कर्म तामसिक कहलाता है।

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥२६॥


जो कर्ता संग मुक्त है, 'अहम' वादी नहीं है, धृति (स्थिरता) और उत्साह पूर्ण है, तथा कार्य के सिद्ध और न सिद्ध होने में एक सा है (अर्थात फल से जिसे कोई मतलब नहीं), ऐसे कर्ता को सात्विक कहा जाता है।

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥२७॥


जो कर्ता रागी होता है, अपने किये काम के फल के प्रति इच्छा और लोभ रखता है, हिंसात्मक और अपवित्र वृत्ति वाला होता है, तथा (कर्म के सिद्ध होने या न होने पर) प्रसन्नता और शोक ग्रस्त होता है, उसे राजसिक कहा जाता है।

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥२८॥


जो कर्ता अयुक्त (कर्म भावना का न होना, सही चेतना न होना) हो, स्तब्ध हो, आलसी हो, विषादी तथा दीर्घ सूत्री हो (लम्बा खीचने वाला हो) (जिसकी कर्म न करने में ही रुची हो तथा आलस से भरा हो) - ऐसे कर्ता को तामसिक कहते हैं।

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय॥२९॥


हे धनंजय, अब तुम अशेष रूप से अलग अलग बुद्धि तथा धृति (स्थिरता) के भी तीनों गुणों के अनुसार जो भेद हैं, वे सुनो।

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥३०॥

प्रवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म में लगना) और निवृत्ति (किसी भी चीज़ या कर्म से मानसिक छुटकारा पाना) क्या है (तथा किस चीज में प्रवृत्त होना चाहिये और किस से निवृत्त होना चाहिये), कार्य क्या है, और अकार्य (कार्य न करना) क्या है, भय क्या है और अभय क्या है, किस से बन्धन उत्पन्न होता है, और किस से मोक्ष उत्पन्न होता है - जो बुद्धि इन सब को जानती है (इनका भेद देखती है), हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकहै।
   
 
 
होम | अबाउट अस | आरती संग्रह | चालीसा संग्रह | व्रत व त्यौहार | रामचरित मानस | श्रीमद्भगवद्गीता | वेद | व्रतकथा | विशेष