पंद्रहवाँ अध्याय
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१६॥
इस संसार में दो प्रकार की पुरुष संज्ञायें हैं - क्षर और अक्षऱ (अर्थात जो नश्वर हैं और जो शाश्वत हैं)। इन दोनो प्रकारों में सभी जीव (देहधारी) क्षर हैं और उन देहों में विराजमान आत्मा को अक्षर कहा जाता है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
परन्तु इन से अतिरिक्त एक अन्य उत्तम पुरुष और भी हैं जिन्हें परमात्मा कह कर पुकारा जाता है। वे विकार हीन अव्यय ईश्वर इन तीनो लोकों में प्रविष्ट होकर संपूर्ण संसार का भरण पोषण करते हैं।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१८॥
क्योंकि मैं क्षर (देह धारी जीव) से ऊपर हूँ तथा अक्षर (आत्मा) से भी उत्तम हूँ, इस लिये मुझे इस संसार में पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१९॥
जो अन्धकार से परे मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह ही सब कुछ जानता है और संपूर्ण भावना से हर प्रकार मुझे भजता है, हे भारत।
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥२०॥
हे अनघ (पाप हीन अर्जुन), इस प्रकार मैंने तुम्हें इस गुह्य शास्त्र को सुनाया। इसे जान लेने पर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है, हे भारत।