Bhagwad Gita  
 
 


   Share  family



   Print   



 
Home > Srimadh Bhagwad Gita > 12th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
बारहवाँ अध्याय
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६॥


जो आकाङ्क्षा रहित है, शुद्ध है, दक्ष है, उदासीन (मतलब रहित) है, व्यथा रहित है, सभी आरम्भों का त्यागी है,
ऍसा मेरी भक्त मुझे प्रिय है।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥१७॥


जो न प्रसन्न होता है, न दुखी (द्वेष) होता है, न शोक करता है और न ही आकाङ्क्षा करता है। शुभ और
अशुभ दोनों का जिसने त्याग कर दिया है, ऍसा भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥१८॥

जो शत्रु और मित्र के प्रति समान है, तथा मान और अपमान में भी एक सा है, जिसके लिये सरदी गरमी
एक हैं, और जो सुख और दुख में एक सा है, हर प्रकार से संग रहित है।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥१९॥

जो अपनी निन्दा और स्तुति को एक सा भाव देता है (एक सा मानता है), जो मौनी है, किसी भी तरह (थोड़े बहुत में) संतुष्ट है, घर बार से जुड़ा नहीं है। जो स्थिर मति है, ऍसा भक्तिमान नर मुझे प्रिय है।

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥२०॥


और जो श्रद्धावान भक्त मुझ ही पर परायण (मुझे ही लक्ष्य मानते) हुये, इस बताये गये धर्म अमृत की उपासना करते हैं (मानते हैं और पालन करते हैं), ऍसे भक्त मुझे अत्यन्त (अतीव) प्रिय हैं।
   
 
 
होम | अबाउट अस | आरती संग्रह | चालीसा संग्रह | व्रत व त्यौहार | रामचरित मानस | श्रीमद्भगवद्गीता | वेद | व्रतकथा | विशेष