ग्यारवाँ अध्याय
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥३१॥
इस उग्र रुप वाले आप कौन हैं, मुझ से कहिये। आप को प्रणाम है हे देववर, प्रसन्न होईये।
हे आदिदेव, मैं आप को अनुभव सहित जानना चाहता हूँ। मैं आपकी प्रवृत्ति अर्थात इस रुप लेने के
कारण को नहीं जानता।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः॥३२॥
मैं संसार का क्षय करने के लिये प्रवृद्ध (बढा) हुआ काल हूँ। और इस समय इन लोकों का संहार करने में
प्रवृत्त हूँ। तुम्हारे बिना भी, यहाँ तुम्हारे विपक्ष में जो योद्धा गण स्थित हैं, वे भविष्य में नहीं रहेंगे।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥३३॥
इसलिये तुम उठो और अपने शत्रुयों को जीत कर यश प्राप्त करो और समृद्ध राज्य भोगो। तुम्हारे यह शत्रु मेरे द्वारा
पैहले से ही मारे जा चुके हैं, हे सव्यसाचिन्, तुम केवल निमित्त-मात्र (कहने को) ही बनो।
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥३४॥
द्रोण, श्री भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा अन्य वीर योधा भी, मेरे द्वारा (पहले ही) मारे जा चुके हैं। व्यथा (गलत आग्रह)
त्यागो और युध करो, तुम रण में अपने शत्रुओं को जीतोगे।
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञ्जलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य॥३५॥
श्री केशव के इन वचनों को सुन कर मुकुटधारी अर्जुन ने हाथ जोड़ कर श्री कृष्ण को नमस्कार किया और
काँपते हुये भयभीत हृदय से फिरसे प्रणाम करते हुये बोले।
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसंघाः॥३६॥
यह योग्य है, हे हृषीकेश, कि यह जगत आप की कीर्ती का गुणगान कर हर्षित होतै है और अनुरागित (प्रेम युक्त) होता है।
आप से भयभीत हो कर राक्षस हर दिशाओं में भाग रहे हैं और सभी सिद्ध गण आपको नमस्कार कर रहे हैं।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥३७॥
और हे महात्मा, आपको नमस्कार करें भी क्यों नहीं। आप ही सबसे बढकर हैं, ब्रह्मा जी के भी
आदि कर्ता हैं (ब्रह्मा जी के भी आदि हैं)। आप ही अनन्त हैं, देव-ईश हैं, जगत्-निवास हैं। आप ही अक्षर हैं,
आप ही सत् और असत् हैं, और उन संज्ञाओं से भी परे जो है वह भी आप ही हैं।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥३८॥
आप ही आदि-देव (पुरातन देव) हैं, सनातन पुरुष हैं, आप ही इस संसार के परम आश्रय (निधान) हैं।
आप ही ज्ञाता हैं और ज्ञेय (जिन्हें जानना चाहिये) हैं। आप ही परम धाम हैं और आप से ही यह संपूर्ण संसार
व्याप्त है, हे अनन्त रुप।
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥३९॥
आप ही वायु हैं, आप ही यम हैं, आप ही अग्नि हैं, आप ही वरुण (जल देवता) हैं, आप ही चन्द्र हैं,
प्रजापति भी आप ही हैं, और प्रपितामहा (पितामह अर्थात पिता-के-पिता के भी पिता) भी आप हैं।
आप को नमस्कार है, नमस्कार है, सहस्र (हज़ार) बार मैं आपको नमस्कार करता हूँ। और फिर से
आपको नमस्कार है, नमस्कार है।
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥४०॥
हे सर्व, आप को आगे से नमस्कार है, पीछे से भी नमस्कार है, हर प्रकार से नमस्कार है। हे अनन्त वीर्य,
हे अमित विक्रमशाली, सबमें आप समाये हुये हैं (व्याप्त हैं), आप ही सब कुछ हैं।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥४१॥
हे भगवन्, आप को केवल आपना मित्र ही मान कर मैंने प्रमादवश (मूर्खता कारण) यां प्रेम वश आपको जो हे कृष्ण, हे यादव,
हे सखा (मित्र) - कह कर संबोधित किया, आप के महिमानता को न जानते हुये।
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥४२॥
और हास्य मज़ाक करते हुये, या चलते फिरते, लेटे हुये, बैठे हुये अथवा भोजन करते हुये,
अकेले में या आप के सामने मैंने जो भी असत् व्यवहार किया हो (जितना आदर पूर्ण व्यहार करना चाहिये
उतना न किया हो) उसके लिये, हे अप्रमेय, आप मुझे क्षमा कर दीजिये।
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥४३॥
आप इस चर-अचर लोक के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं, परम् गुरू हैं। हे अप्रतिम प्रभाव, इन तीनो लोकों में
आप के बराबर (समान) ही कोई नहीं है, आप से बढकर तो कौन होगा भला।
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥४४॥
इसलिये मैं झुक कर आप को प्रणाम करता, मुझ से प्रसन्न होईये हे ईश्वर। जैसे एक पिता
अपने पुत्र के, मित्र आपने मित्र के, औप प्रिय आपने प्रिय की गलतियों को क्षमा कर देता है,
वैसे ही हे देव, आप मुझे क्षमा कर दीजिये।
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास॥४५॥
जो मैंने पहले कभी नहीं देखा, आप के इस रुप को देख लेने पर मैं अति प्रसन्न हो रहा हूँ, और साथ ही
साथ मेरा मन भय से प्रव्यथित (व्याकुल) भी हो रहा है। हे भगवन्, आप कृप्या कर मुझे अपना सौम्य देव रुप
(चार बाहों वाला रुप) ही दिखाईये। प्रसन्न होईये, हे देवेश, हे जगन्निवास (इस जगत के निवास स्थान)।