आठवाँ अध्याय
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥१६॥
ब्रह्म से नीचे जितने भी लोक हैं उनमें से किसी को भी प्राप्त करने पर जीव को वापिस लौटना पड़ता है (मृत्यु होती है),
लेकिन मुझे प्राप्त कर लेने पर, हे कौन्तेय, फिर दोबारा जन्म नहीं होता।
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥१७॥
जो जानते हैं की सहस्र (हज़ार) युग बीत जाने पर ब्रह्म का दिन होता है और सहस्र युगों के अन्त पर ही
रात्री होती है, वे लोग दिन और रात को जानते हैं।
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥१८॥
दिन के आगम पर अव्यक्त से सभी उत्तपन्न होकर व्यक्त (दिखते हैं) होते हैं, और रात्रि के
आने पर प्रलय को प्राप्त हो, जिसे अव्यक्त कहा जाता है, उसी में समा जाते हैं।
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥१९॥
हे पार्थ, इस प्रकार यह समस्त जीव दिन आने पर बार बार उत्पन्न होते हैं, और रात होने पर बार बार
वशहीन ही प्रलय को प्राप्त होते हैं।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥२०॥
इन व्यक्त और अव्यक्त जीवों से परे एक और अव्यक्त सनातन पुरुष है, जो सभी जीवों का अन्त होने पर भी नष्ट
नहीं होता।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥२१॥
जिसे अव्यक्त और अक्षर कहा जाता है, और जिसे परम गति बताया जाता है,
जिसे प्राप्त करने पर कोई फिर से नहीं लौटता वही मेरा परम स्थान है।
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥२२॥
हे पार्थ, उस परम पुरुष को, जिसमें यह सभी जीव स्थित हैं और जीसमें यह सब कुछ ही
बसा हुआ है, तुम अनन्य भक्ति से पा सकते हो।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥२३॥
हे भरतर्षभ, अब मैं तुम्हें वह समय बताता हूँ जिसमें शरीर त्यागते हुऐ योगी
लौट कर नहीं आते और जिसमें वे लौट कर आते हैं।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥२४॥
रौशनी में, अग्नि की ज्योति के समीप, दिन के समय, या सुर्य के उत्तर में होने वाले छः महीने (गरमी), उस में
जाने वाले ब्रह्म को जानने वाले, ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥२५॥
धूऐं, रात्रि, अंधकार और सूर्य के दक्षिण में होने वाले छः महीने (सर्दी), उस में योगी
चन्द्र की ज्योति को प्राप्त कर पुनः लौटते हैं।
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥२६॥
इस जगत में सफेद और काला - ये दो शाश्वत पथ माने जाते हैं। एक पर चलने वाले फिर लौट कर नहीं आते और
दूसरे पर चलने वाले फिर लौट कर आते हैं।
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥२७॥
हे पार्थ, ऍसा एक भी योगी नहीं है जो इसे जान जाने के बाद फिर कभी मोहित हुआ हो। इसलिये,
हे अर्जुन, तुम हर समय योग-युक्त बनो।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥२८॥
इस सब को जान कर, योगी, वेदों, यज्ञों, तप औऱ दान से जो भी पुण्य फल प्राप्त होते हैं उन सब से
ऊपर उठकर, पुरातन परम स्थान प्राप्त कर लेता है।