Bhagwad Gita  
 
 


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Home > Srimadh Bhagwad Gita > 5th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
पाँचवां अध्याय
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥१६॥

जिन के आत्म मे स्थित अज्ञान को ज्ञान ने नष्ट कर दिया है,
वह ज्ञान, सूर्य की तरह, सब प्रकाशित कर देता है॥

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥१७॥

ज्ञान द्वारा उनके सभी पाप धुले हुऐ, उसी ज्ञान मे बुद्धि लगाये, उसी मे आत्मा को लगाये, उसी मे श्रद्धा रखते हुऐ, और उसी में डूबे हुऐ, वे ऍसा स्थान प्राप्त करते हैं जिस से फिर लौट कर नहीं आते॥

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥१८॥

ज्ञानमंद व्यक्ति एक विद्या विनय संपन्न ब्राह्मण को, गाय को, हाथी को, कुत्ते को
और एक नीच व्यक्ति को, इन सभी को समान दृष्टि से देखता है।

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥१९॥

जिनका मन समता में स्थित है वे यहीं इस जन्म मृत्यु को जीत लेते हैं। क्योंकि ब्रह्म
निर्दोष है और समता पूर्ण है, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥२०॥

न प्रिय लगने वाला प्राप्त कर वे प्रसन्न होते हैं, और न अप्रिय लगने वाला प्राप्त करने पर व्यथित होते हैं। स्थिर बुद्धि वाले, मूर्खता से परे, ब्रह्म को जानने वाले, एसे लोग ब्रह्म में ही स्थित हैं।

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥२१॥

बाहरी स्पर्शों से न जुड़ी आत्मा, अपने आप में ही सुख पाती है। एसी, ब्रह्म योग से युक्त, आत्मा, कभी न अन्त होने वाले निरन्तर सुख का आनन्द लेती है।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥२२॥

बाहरी स्पर्श से उत्तपन्न भोग तो दुख का ही घर हैं। शुरू और अन्त हो जाने वाले ऍसे भोग, हे कौन्तेय, उनमें बुद्धिमान लोग रमा नहीं करते।

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥२३॥

यहाँ इस शरीर को त्यागने से पहले ही जो काम और क्रोध से उत्तपन्न वेगों को सहन कर पाले में सफल हो पाये, ऍसा युक्त नर सुखी है।

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥२४॥

जिसकी अन्तर आत्मा सुखी है, अन्तर आत्मा में ही जो तुष्ट है, और जिसका अन्त करण प्रकाशमयी है,
ऍसा योगी ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर, ब्रह्म में ही समा जाता है।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥२५॥


ॠषी जिनके पाप क्षीण हो चुके हैं, जिनकी द्विन्द्वता छिन्न हो चुकी है, जो संवयम की ही तरह सभी जीवों के हित में रमे हैं, वो ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करते हैं।

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥२६॥

काम और क्रोध को त्यागे, साधना करते हुऐ, अपने चित को नियमित किये,
आत्मा का ज्ञान जिनहें हो चुका है, वे यहाँ होते हुऐ भी ब्रह्म निर्वाण में ही
स्थित हैं।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥२७॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥२८॥

बाहरी स्पर्शों को बाहर कर, अपनी दृष्टि को अन्दर की ओर भ्रुवों के
मध्य में लगाये, प्राण और अपान का नासिकाओं में एक सा बहाव कर,
इन्द्रियों, मन और बुद्धि को नियमित कर, ऍसा मुनि जो मोक्ष प्राप्ति में ही लगा हुआ है,
इच्छा, भय और क्रोध से मुक्त, वह सदा ही मुक्त है।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥२९॥

मुझे ही सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महान ईश्वर,
और सभी जीवों का सुहृद जान कर वह शान्ति को प्राप्त करता है।
   
 
 
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