Bhagwad Gita  
 
 


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Home > Srimadh Bhagwad Gita > 16th Lesson
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता
सोल्हवाँ अध्याय
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥१६॥


उनका चित्त अनेकों दिशाओं में दौडता हुआ, अज्ञान के जाल से ढका रहता है। इच्छाओं और भोगों से आसक्त चित्त, वे अपवित्र नरक में गिरते जाते हैं।

आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥१७॥

अपने ही घमन्ड में डूबे, सवयं से सुध बुध खोये, धन और मान से चिपके, वे केवन ऊपर ऊपर से ही (नाम के लिये ही) दम्भ और घमन्ड में डूबे अविधि पूर्ण ढंग से यज्ञ करते हैं।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥१८॥


अहंकार, बल, घमन्ड, काम और क्रोध में डूबे वे सवयं की आत्मा और अन्य जीवों में विराजमान मुझ से द्वेष करते हैं और मुझ में दोष ढूँडते हैं।

तानहं द्विषतः क्रुरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥१९॥

उन द्वेष करने वाले क्रूर, इस संसार में सबसे नीच मनुष्यों को मैं पुनः पुनः असुरी योनियों में ही फेंकता हुँ।

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥२०॥


उन आसुरी योनियों को प्राप्त कर, जन्मों ही जन्मों तक वे मूर्ख मुझे प्राप्त न कर, हे कौन्तेय, फिर और नीच गतियों को (योनियों अथवा नरकों) को प्राप्त करते हैं।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥२१॥


नरक के तीन द्वार हैं जो आत्मा का नाश करते हैं - काम (इच्छा), क्रोध, तथा लोभ। इसलिये, इन तीनों का ही त्याग कर देना चाहिये।

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥२२॥


इन तीनों अज्ञान के द्वारों से विमुक्त होकर मनुष्य अपने श्रेय (भले) के लिये आचरण करता है, और फिर परम गति को प्राप्त होता है।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥२३॥


जो शास्त्र में बताये मार्ग को छोड कर, अपनी इच्छा अनुसार आचरण करता है, न वह सिद्धि प्राप्त करता है, न सुख और न ही परम गति।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥२४॥


इसलिये तुम्हारे लिये शास्त्र प्रमाण रूप है (शास्त्र को प्रमाण मानकर) जिससे तुम जान सकते हो की क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है। शास्त्र द्वारा मार्ग को जान कर हि तुम्हें उसके अनुसार कर्म करना चाहिये।
   
 
 
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