चौदहवाँ अध्याय
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१६॥
सात्विक (सत्त्व गुण में आधारित) अच्छे कर्मों का फल भी निर्मल बताया जाता है, राजसिक कर्मों का फल लेकिन दुख ही कहा जाता है, और
तामसिक कर्मों का फल अज्ञान ही है।
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१७॥
सत्त्व ज्ञान को जन्म देता है, रजो गुण लोभ को। तमो गुण प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न करता है।
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१८॥
सत्त्व में स्थित प्राणि ऊपर उठते हैं, रजो गुण में स्थित लोग मध्य में ही रहते हैं (अर्थात न उनका पतन होता है न उन्नति), लेकिन तामसिक जघन्य गुण की वृत्ति में स्थित
होने के कारण (निंदनीय तमो गुण में स्थित होने के कारण) नीचें को गिरते हैं (उनका पतन होता है)।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१९॥
जब मनुष्य गुणों के अतिरिक्त और किसी को भी कर्ता नहीं देखता समझता (स्वयं और दूसरों को भी अकर्ता देखता है), केवल गुणों को ही गर्ता देखता है,
और स्वयं को गुणों से ऊपर (परे) जानता है, तब वह मेरे भाव को प्राप्त करता है।
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥२०॥
इन तीनों गुणों को, जो देह की उत्पत्ति का कारण हैं, लाँघ कर देही अर्थात आत्मा जन्म, मृत्यु और जरा आदि दुखों से विमुक्त हो अमृत का अनुभव करता है।
अर्जुन उवाच
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥२१॥
हे प्रभो, इन तीनो गुणों से अतीत हुये मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं। उस का क्या आचरण होता है। वह तीनों गुणो से कैसे पार होता है।
श्रीभगवानुवाचे:
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥२२॥
हे पाण्डव, तानों गुणों से ऊपर उठा महात्मा न प्रकाश (ज्ञान), न प्रवृत्ति (रजो गुण), न ही मोह (तमो गुण) के बहुत बढने पर उन से द्वेष करता है और न ही
लोप हो जाने पर उन की इच्छा करता है।
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥२३॥
जो इस धारणा में स्थित रहता है की गुण ही आपस में वर्त रहे हैं, और इसलिये उदासीन (जिसे कोई मतलब न हो) की तरह गुणों से विचलित न होता, न ही उन से कोई
चेष्ठा करता है।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥२४॥
सुख और दुख में एक सा, अपने आप में ही स्थित जो मिट्टि, पत्थर और सोने को एक सा देखता है। जो प्रिय और अप्रिय की एक सी तुलना करता है, जो धीर मनुष्य
निंदा और आत्म संस्तुति (प्रशंसा) को एक सा देखता है।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥२५॥
जो मान और अपमान को एक सा ही तोलता है (बराबर समझता है), मित्र और विपक्षी को भी बराबर देखता है। सभी आरम्भों का त्याग करने वाला है, ऐसे महात्मा को गुणातीत (गुणों के अतीत) कहा जाता है।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥२६॥
और जो मेरी अव्यभिचारी भक्ति करता है, वह इन गुणों को लाँघ कर ब्रह्म की प्राप्ति करने का पात्र हो जाता है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥२७॥
क्योंकि मैं ही ब्रह्म का, अमृतता का (अमरता का), अव्ययता का, शाश्वतता का, धर्म का, सुख का और एकान्तिक सिद्धि का आधार हूँ (वे मुझ में ही स्थापित हैं)।